Dharti ka Shaap | Anupam Singh
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धरती का शाप | अनुपम सिंह
मौत की ओर अग्रसर है धरती
मुड़-मुड़कर देख रही है पीछे की ओर
उसकी आँखें खोज रही हैं
आदिम पुरखिनों के पद-चिह्न
उन सखियों को खोज रही हैं
जिनके साथ बड़ी होती
फैली थी गंगा के मैदानों तक
उसकी यादों में घुल रही हैं मलयानिल की हवाएँ
जबकि नदियाँ मृत पड़ी हैं
उसकी राहों में
नदियों के कंकाल बटोरती
मौत की ओर अग्रसर है धरती
वह ले जा रही है अपने बचे खुचे पहाड़
अपने बटुए में रख लिये जंगल और घास के मैदान
अपनी बची हुई सारी चिड़ियाएँ
उड़ा रही है तुम्हारे बन्द पिंजड़े से
झील-झरना-ताल-तलैया—
सब रख लिया है अपने लोटे में
पेड़ों को कंधे पर रख
अपना सारा बीज बटोर
मौत की ओर अग्रसर है धरती
गरीबचंद की बेटियाँ झुकी हुई हैं निवेदन में
उसे रोकती,
बुहार रही हैं उसकी राह
जबकि उसके महान पुत्र
उसके तारनहार
अब भी चिमटे हैं उसकी छाती से
यदि अन्तिम क्षण भावुक नहीं हुई वह
जैसे माँएँ होती हैं
तो माफ़ नहीं करेगी
पलटकर शाप देगी धरती।
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