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Jantar Mantar | Arunabh Saurabh

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जंतर-मंतर | अरुणाभ सौरभ

लाल - दीवारों

और झरोखे पर

सरसराते दिन में

सीढ़ी-सीढ़ी नाप रहे हो

जंतर-मतर पर

बोल कबूतर

मैंना बोली फुदक-फुदककर

बड़ी जालिम है।

जंतर-मंतर

मॉँगन से कछू मिले ना हियाँ

बताओ किधर चले मियाँ

पूछ उठाकर भगी गिलहरी

कौवा बोला काँव - काँव

लोट चलो अब अपने गाँव

टिट्ही बोलीं टीं.टीं.

राजा मंत्री छी...छी

घर - घर माँग रहे वोट

और नए- पुराने नोट

झरोखे से झाँके

इतिहास का कोना

जीना चढ़ि ऊँचे हुए

चाँदी और सोना

सूरज डूबन को तैयार

ताड पेड़ के दक्खिन पार

पंछी नाचे अपनी ताल

जनता बनी विक्रम बैताल

झाँक लेना

लाल झरोरवा

बोल देना गज़ब अनोखा

बच्चे फांदे बने अनजान

धरने पर बैठे पहलवान..

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709 epizódok

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Pratidin Ek Kavita

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जंतर-मंतर | अरुणाभ सौरभ

लाल - दीवारों

और झरोखे पर

सरसराते दिन में

सीढ़ी-सीढ़ी नाप रहे हो

जंतर-मतर पर

बोल कबूतर

मैंना बोली फुदक-फुदककर

बड़ी जालिम है।

जंतर-मंतर

मॉँगन से कछू मिले ना हियाँ

बताओ किधर चले मियाँ

पूछ उठाकर भगी गिलहरी

कौवा बोला काँव - काँव

लोट चलो अब अपने गाँव

टिट्ही बोलीं टीं.टीं.

राजा मंत्री छी...छी

घर - घर माँग रहे वोट

और नए- पुराने नोट

झरोखे से झाँके

इतिहास का कोना

जीना चढ़ि ऊँचे हुए

चाँदी और सोना

सूरज डूबन को तैयार

ताड पेड़ के दक्खिन पार

पंछी नाचे अपनी ताल

जनता बनी विक्रम बैताल

झाँक लेना

लाल झरोरवा

बोल देना गज़ब अनोखा

बच्चे फांदे बने अनजान

धरने पर बैठे पहलवान..

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जल | अशोक वाजपेयी जल खोजता है जल में हरियाली का उद्गम कुछ नीली स्मृतियाँ और मटमैले चिद्म जल भागता है जल की गली में गाते हुए लय का विलय का उच्छल गान जल देता है जल को आवाज़, जल सुनता है जल की कथा, जल उठाता है अंजलि में जल को, जल करता है जल में डूबकर उबरने की प्रार्थना जल में ही थरथराती है जल की कामना।
 
अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ | लक्ष्मीशंकर वाजपेयी अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ जो सबका हो ऐसा ख़ुदा चाहता हूँ। जो बीमार माहौल को ताज़गी दे वतन के लिए वो हवा चाहता हूँ। कहा उसने धत इस निराली अदा से मैं दोहराना फिर वो ख़ता चाहता हूँ। तू सचमुच ख़ुदा है तो फिर क्या बताना तुझे सब पता है मैं क्या चाहता हूँ। मुझे ग़म ही बांटे मुक़द्दर ने लेकिन मैं सबको ख़ुशी बांटना चाहता हूँ। बहुत हो चुका छुप के डर डर के जीना सितमगर से अब सामना चाहता हूँ। किसी को भंवर में न ले जाने पाए मैं दरिया का रुख़ मोड़ना चाहता हूँ।…
 
सपने | शिवम चौबे रिक्शे वाले सवारियों के सपने देखते हैं सवारियाँ गंतव्य के दुकानदार के सपने में ग्राहक ही आएं ये ज़रूरी नहीं मॉल भी आ सकते हैं छोटे व्यापारी पूंजीपतियों के सपने देखते हैं। पूंजीपति प्रधानमंत्री के सपने देखता है प्रधानमंत्री के सपने में सम्भव है जनता न आये आम आदमी अच्छे दिन के स्वप्न देखता है। पिता देखते हैं अपना घर होने का सपना माँ के सपने में आती है अच्छी नींद हर व्यक्ति अपनी जगह से आगे बढ़कर देखता है। मल्लाह नदियों के सपने देखते हैं। नदियों के स्वप्न में मछलियां नहीं समुद्र आता है पौधों के सपने में पेड़ पेड़ों को शायद ही आते हों पलंग और कुर्सी के स्वप्न कैदी देखते हैं आज़ादी के सपने चिड़ियों के सपने में होता है आसमान सपने आने और सपने देखने में फ़र्क होता है आये हुए सपने डर के सपने होते हैं। देखे गए सपने सुंदर इच्छाओं के मैंने देखा था तुम्हारे साथ जीवन का सपना मेरे सपने में आते हैं तुम्हारे छूटे हुए हाथ बच्चों को आते हैं सबसे सुंदर सपने बूढ़ों के सपनों में घटता है जीवन क्रांतिकारी देखते हैं संघर्ष और प्रेम के स्वप्न कवि के सपने में सम्पादक और पुरस्कार ही आएं ऐसा कहाँ लिखा उनको दुनिया भर के सपने आते होंगे बीते हुए कल और आने वाले कल के सपने जैसे नदी की सीमा में पानी होता है नींद की सीमा में होते हैं सपने सूख जाती है जिनकी नदी उनको कहाँ ही आते हैं सपने।…
 
मैं उनका ही होता| गजानन माधव मुक्तिबोध मैं उनका ही होता, जिनसे मैंने रूप-भाव पाए हैं। वे मेरे ही लिए बँधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं, मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा, ऐसे किंतु चाव उनके हैं। मैं ऊँचा होता चलता हूँ उनके ओछेपन से गिर-गिर, उनके छिछलेपन से खुद-खुद, मैं गहरा होता चलता हूँ।…
 
प्रेम गाथा | अजय कुमार प्रेम एक कमरे को कैनवास में तब्दील कर के उसमें आँक सकता है एक बादल जंगल में नाचता हुआ मोर एक गिरती हुई बारिश देवदार का एक पेड़ एक सितारों भरी रेशमी रात एक अलसाई गुनगुनाती सुबह समुंदर की लहरों को मदमदाता शोर प्रेम एक गलती को दे सकता है पद्म विभूषण एक झूठ को सहेज कर रख सकता है आजीवन एक पराजय का सहला सकता है माथा और हर प्रतीक्षा का कर सकता है आलिंगन पर प्रेम की नदी में अपमानों से बन सकतें है भंवर उपेक्षाओं से पड़ सकती हैं अदृश्य गांठें तिरस्कारों से बेसुरा हो सकता है उसके भीतर बजता राग यमन कल्याण कोई भी प्रेम बस अपनी अवेहलना नहीं भूलता सिर्फ़ भूलने का एक अभिनय कर सकता है जिसका कभी भी हो सकता है आकस्मिक पटाक्षेप आप यह याद रखिए…
 
चँदेरी | कुमार अम्बुज चंदेरी मेरे शहर से बहुत दूर नहीं है मुझे दूर जाकर पता चलता है बहुत माँग है चंदेरी की साड़ियों की चँदेरी मेरे शहर से इतनी क़रीब है कि रात में कई बार मुझे सुनाई देती है करघों की आवाज़ जब कोहरा नहीं होता सुबह-सुबह दिखाई देते हैं चँदेरी के किले के कंगूरे चँदेरी की दूरी बस इतनी है जितनी धागों से कारीगरों की दूरी मेरे शहर और चँदेरी के बीच बिछी हुई है साड़ियों की कारीगरी इस तरफ़ से साड़ी का छोर खींचो तो दूसरी तरफ़ हिलती हैं चँदेरी की गलियाँ गलियों की धूल से साड़ी को बचाता हुआ कारीगर सेठ के आगे रखता है अपना हुनर मैं कई रातों से परेशान हूँ चँदेरी के सपने में दिखाई देते हैं मुझे धागों पर लटके हुए कारीगरों के सिर चँदेरी की साड़ियों की दूर-दूर तक माँग है मुझे दूर जाकर पता चलता है।…
 
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा | परवीन शाकिर वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए मौसम-ए-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जाएगा मुझ को तहज़ीब के बर्ज़ख़ का बनाया वारिस जुर्म ये भी मिरे अज्दाद के सर जाएगा…
 
सिलबट्टा | प्रशांत बेबार वो पीसती है दिन रात लगातार मसाले सिलबट्टे पर तेज़ तीखे मसाले अक्सर जलने वाले पीसकर दाँती तानकर भौहें वो पीसती है हरी-हरी नरम पत्तियाँ और गहरे काले लम्हे सिलेटी से चुभने वाले किस्से वो पीसती हैं मीठे काजू, भीगे बादाम और पीस देना चाहती है सभी कड़वी भददी बेस्वाद बातें लगाकर आलती-पालती लिटाकर सिल, उठाकर सिरहाना उसका दोनों हथेलियों में फँसाकर बट्टा सीने में सास भरकर नथुने फुलाकर पसीने से लथपथ पीस देना चाहती है बार-बार सरकता घूँघट चिल्लाहट, छटपटाहट अपनी और उनकी, जिनके निशान हैं बट्टे पर और उनकी भी, जिनके निशान नहीं चाहती बट्टे पर वो पीसती है दिन रात खुद को लगातार मिलाकर देह का चूरा पोटुओं से नमक में यूँ बनाती है लज़ीज़ सब कुछ वो पीसते-पीसते सिलबट्टे पे उम्र अपनी गढ़ती है तमाम मीठे ठंडे सपने और रख देती है बेटी के नन्हे होठों के पोरों पर चुपचाप सिलबट्टे से दूर, सिलबट्टे से बहुत दूर।…
 
अड़ियल साँस | केदारनाथ सिंह पृथ्वी बुख़ार में जल रही थी और इस महान पृथ्वी के एक छोटे-से सिरे पर एक छोटी-सी कोठरी में लेटी थी वह और उसकी साँस अब भी चल रही थी और साँस जब तक चलती है झूठ सच पृथ्वी तारे - सब चलते रहते हैं डॉक्टर वापस जा चुका था और हालाँकि वह वापस जा चुका था पर अब भी सब को उम्मीद थी कि कहीं कुछ है। जो बचा रह गया है नष्ट होने से जो बचा रह जाता है लोग उसी को कहते हैं जीवन कई बार उसी को काई घास या पत्थर भी कह देते हैं लोग लोग जो भी कहते हैं उसमें कुछ न कुछ जीवन हमेशा होता है। तो यह वही चीज़ थी यानी कि जीवन जिसे तड़पता हुआ छोड़कर चला गया था डॉक्टर और वह अब भी थी और साँस ले रही थी उसी तरह उसकी हर साँस हथौड़े की तरह गिर रही थी सारे सन्नाटे पर ठक-ठक बज रहा था सन्नाटा जिससे हिल उठता था दिया जो रखा था उसके सिरहाने किसी ने उसकी देह छुई कहा - 'अभी गर्म है'। लेकिन असल में देह या कि दिया कहाँ से आ रही थी जीने की आँच यह जाँचने का कोई उपाय नहीं था क्योंकि डॉक्टर जा चुका था और अब खाली चारपाई पर सिर्फ़ एक लंबी और अकेली साँस थी जो उठ रही थी गिर रही थी गिर रही थी उठ रही थी.. इस तरह अड़ियल साँस को मैंने पहली बार देखा मृत्यु से खेलते और पंजा लड़ाते हुए तुच्छ असह्य गरिमामय साँस को मैंने पहली बार देखा इतने पास से…
 
ऐ औरत! | नासिरा शर्मा जाड़े की इस बदली भरी शाम को कहाँ जा रही हो पीठ दिखाते हुए ठहरो तो ज़रा! मुखड़ा तो देखूँ कि उस पर कितनी सिलवटें हैं थकन और भूख-प्यास की सर पर उठाए यह सूखी लकड़ियों का गट्ठर कहाँ लेकर जा रही हो इसे? तुम्हें नहीं पता है कि लकड़ी जलाना, धुआँ फैलाना, वायु को दूषित करना अपराध है अपराध! गैस है, तेल है ,क्यों नहीं करतीं इस्तेमाल उसे तुम्हारी ग़रीबी, बेचारगी और बेकारी के दुखड़ों से कुछ नहीं लेना देना है क़ानून को बस इतना कहना है कि जाड़े की ठिठुरी रात में,गरमाई लेते हुए रोटी सेंकने की ग़लती मत कर बैठना पेड़ कुछ कहें या न कहें तुम्हें मगर इस अपराध पर, क़ानून पकड़ लेगा तुम्हें यह दो हज़ार चौबीस है बदलते समय के साथ चलो , और पुराने रिश्तों से नाता तोड़ो सवाल मत करो कि बमों से निकलते बारूद धूल, धुएँ से पर्यावरण का नाश नहीं होता पेड़ों के कटने से गर्मी का क़हर नहीं टूटता यह छोटे मुँह और बड़ी बात होगी।…
 
हार | प्रभात जब-जब भी मैं हारता हूँ मुझे स्त्रियों की याद आती है और ताक़त मिलती है वे सदा हारी हुई परिस्थिति में ही काम करती हैं उनमें एक धुन एक लय एक मुक्ति मुझे नज़र आती है वे काम के बदले नाम से गहराई तक मुक्त दिखलाई पड़ती हैं असल में वे निचुड़ने की हद तक थक जाने के बाद भी इसी कारण से हँस पाती हैं कि वे हारी हुई हैं विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें ऐतिहासिक विजय हासिल है…
 
ग़ुस्सा | गुलज़ार बूँद बराबर बौना-सा भन्नाकर लपका पैर के अँगूठे से उछला टख़नों से घुटनों पर आया पेट पे कूदा नाक पकड़ कर फन फैला कर सर पे चढ़ गया ग़ुस्सा!
 
मरीज़ का नाम- उस्मान ख़ान चाहता हूँ किसी शाम तुम्हें गले लगाकर ख़ूब रोना लेकिन मेरे सपनों में भी वो दिन नहीं ढलता जिसके आख़री सिरे पर तुमसे गले मिलने की शाम रखी है सुनता हूँ कि एक नए कवि को भी तुमसे इश्क़ है मैं उससे इश्क़ करने लगा हूँ मेरे सारे दुःस्वप्नों के बयान तुम्हारे पास हैं और तुम्हारे सारे आत्मालाप मैंने टेप किए हैं मैं साइक्रेटिस्ट की तरफ़ देखता हूँ वो तुम्हारी तरफ़ और तुम मेरी तरफ़ और हम तीनों भूल जाते हैं—मरीज़ का नाम!…
 
बनाया है मैंने ये घर | रामदरश मिश्र बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला कटा ज़िन्दगी का सफर धीरे-धीरे जहाँ आप पहुँचे छलॉंगें लगा कर वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे न हँस कर, न रोकर किसी में उड़ेला पिया ख़ुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी मुहब्बत मिली है अगर धीरे-धीरे…
 
अपने आप से | ज़ाहिद डार मैं ने लोगों से भला क्या सीखा यही अल्फ़ाज़ में झूटी सच्ची बात से बात मिलाना दिल की बे-यक़ीनी को छुपाना सर को हर ग़बी कुंद-ज़ेहन शख़्स की ख़िदमत में झुकाना हँसना मुस्कुराते हुए कहना साहब ज़िंदगी करने का फ़न आप से बेहतर तो यहाँ कोई नहीं जानता है गुफ़्तुगू कितनी भी मजहूल हो माथा हमवार कान बेदार रहें आँखें निहायत गहरी सोच में डूबी हुई फ़लसफ़ी ऐसे किताबी या ज़बानी मानो उस से पहले कभी इंसान ने देखे ने सुने उन को बतला दो यही बात वगर्ना इक दिन और वो दिन भी बहुत दूर नहीं तुम नहीं आओगे ये लोग कहेंगे जाहिल बात करने का सलीक़ा ही नहीं जानता है क्या तुम्हें ख़ौफ़ नहीं आता है ख़ौफ़ आता है कि लोगों की नज़र से गिर कर हाज़रा दौर में इक शख़्स जिए तो कैसे शहर में लाखों की आबादी में एक भी ऐसा नहीं जिस का ईमान किसी ऐसे वजूद ऐसी हस्ती या हक़ीक़त या हिकायत पर हो जिस तक हाज़रा दौर के जिब्रईल की (या'नी अख़बार) दस्तरस न हो रसाई न हो मैं ने लोगों से भला क्या सीखा बुज़दिली और जहालत की फ़ज़ा में जीना दाइमी ख़ौफ़ में रहना कहना सब बराबर हैं हुजूम जिस तरफ़ जाए वही रस्ता है मैं ने लोगों से भला क्या सीखा बे यक़ीनी- अविश्वास ग़बी- मंदबुद्धि कुंद ज़ह्न- मूर्ख ख़िदमत- सेवा गुफ़्तगू: बात चीत मजहूल- मूर्खता से भरी हुई हमवार: एक सा बेदार: जागता हुआ फ़ल्सफ़ी दार्शनिक हाज़रा: वर्तमान हस्ती: अस्तित्व हिकायत: कहानी जिब्रईल: मान्यता के अनुसार ख़ुदा का एक फ़रिश्ता दस्तरस: पहुँच रसाई: पहुँच दाइमी: शाश्वत हुजूम: भीड़…
 
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